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जुनूँ से गुज़रने को जी चाहता है | शाही शायरी
junun se guzarne ko ji chahta hai

ग़ज़ल

जुनूँ से गुज़रने को जी चाहता है

शकील बदायुनी

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जुनूँ से गुज़रने को जी चाहता है
हँसी ज़ब्त करने को जी चाहता है

जहाँ इश्क़ में डूब कर रह गए हैं
वहीं फिर उभरने को जी चाहता है

वो हम से ख़फ़ा हैं हम उन से ख़फ़ा हैं
मगर बात करने को जी चाहता है

है मुद्दत से बे-रंग नक़्श-ए-मोहब्बत
कोई रंग भरने को जी चाहता है

ब-ईं ख़ुद-सरी वो ग़ुरूर-ए-मोहब्बत
उन्हें सज्दा करने को जी चाहता है

क़ज़ा मुज़्दा-ए-ज़िंदगी ले के आए
कुछ इस तरह मरने को जी चाहता है

निज़ाम-ए-दो-आलम की हो ख़ैर या-रब
फिर इक आह करने को जी चाहता है

गुनाह-ए-मुकर्रर 'शकील' अल्लाह अल्लाह
बिगड़ कर सँवरने को जी चाहता है