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जुनूँ पे छोड़ दी अब सारी ज़िंदगी मैं ने | शाही शायरी
junun pe chhoD di ab sari zindagi maine

ग़ज़ल

जुनूँ पे छोड़ दी अब सारी ज़िंदगी मैं ने

नवाज़ असीमी

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जुनूँ पे छोड़ दी अब सारी ज़िंदगी मैं ने
ख़िरद को आग लगा दी अभी अभी मैं ने

फ़क़ीर-ए-शहर के शजरे को देखने के बा'द
अमीर-ए-शहर की दस्तार खींच ली मैं ने

हवाएँ इतनी ख़ुनुक थीं के ख़ून जमने लगा
तो तपते सेहरा की कुछ रेत ओढ़ ली मैं ने

तिलिस्म टूटा परिंदे से शाहज़ादी बनी
जो सर में कील ठुकी थी निकाल दी मैं ने

गुज़ारिशों को न मानो मगर ये याद रखो
कई सुनाए हैं फ़रमान-ए-तुग़लक़ी मैं ने

बुनी गई थी जो ख़्वाहिश के ताने-बाने से
मज़ार-ए-दिल से वो चादर उतार दी मैं ने

मिरे चराग़ों वसिय्यत तो देख लो मेरी
तुम्हारे हिस्से में लिख दी है रौशनी मैं ने

'नवाज़' इस लिए रहता है वो ख़फ़ा मुझ से
के उस की बात पे हामी नहीं भरी मैं ने