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जुनूँ में हम रह-ए-ख़ौफ़-ओ-ख़तर से गुज़रे हैं | शाही शायरी
junun mein hum rah-e-KHauf-e-KHatar se guzre hain

ग़ज़ल

जुनूँ में हम रह-ए-ख़ौफ़-ओ-ख़तर से गुज़रे हैं

इक़बाल माहिर

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जुनूँ में हम रह-ए-ख़ौफ़-ओ-ख़तर से गुज़रे हैं
जिधर से कोई न गुज़रे उधर से गुज़रे हैं

सफ़-ए-सलीब जहाँ इंतिज़ार करती थी
मसीह-ए-वक़्त उसी रहगुज़र से गुज़रे हैं

मैं डूब डूब के उभरा हूँ हर तलातुम से
हज़ार सैल-ए-रवाँ मेरे सर से गुज़रे हैं

जो कल थे बैठे हुए गेसुओं के साए में
वो आज तपती हुई रहगुज़र से गुज़रे हैं

सुकूत-ए-शाम में यादों के कारवाँ 'माहिर'
दिल-ए-तबाह के उजड़े नगर से गुज़रे हैं