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जुनूँ में ध्यान से आख़िर फिसल गई कोई शय | शाही शायरी
junun mein dhyan se aaKHir phisal gai koi shai

ग़ज़ल

जुनूँ में ध्यान से आख़िर फिसल गई कोई शय

मुशताक़ सदफ़

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जुनूँ में ध्यान से आख़िर फिसल गई कोई शय
न जाने किस की दुआ से सँभल गई कोई शय

अभी अभी मिरी आँखों में कुछ धुआँ सा उठा
अभी अभी मिरे सीने में जल गई कोई शय

बहुत सँभाल के रखने की हम ने कोशिश की
हमारे हाथ से फिर भी निकल गई कोई शय

मैं जब भी देखता हूँ ज़िंदगी का पिछ्ला वरक़
तो ऐसा लगता है दिल में कुचल गई कोई शय

हमारी ज़िंदगी गरचे थी मुंतशिर पहले
जो वक़्त आया तो साँचे में ढल गई कोई शय

न कोई ज़ौक़-ए-तमाशा न कोई रंग-ए-हयात
ज़रूरतों के बहाने बदल गई कोई शय