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जुनूँ की रस्म ज़माने में आम हो न सकी | शाही शायरी
junun ki rasm zamane mein aam ho na saki

ग़ज़ल

जुनूँ की रस्म ज़माने में आम हो न सकी

अहमद शाहिद ख़ाँ

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जुनूँ की रस्म ज़माने में आम हो न सकी
हवस थी चाह वफ़ा की ग़ुलाम हो न सकी

लिखे थे दार-ओ-रसन जिस किसी की क़िस्मत में
फिर उस की ज़ुल्फ़ के साए में शाम हो न सकी

मिरी उदासी का बाइ'स शब-ए-फ़िराक़ नहीं
बसर ये रात ब-सद-एहतिमाम हो न सकी

मिरी निगाह उठी ही रही सू-ए-जानाँ
तजल्लियों में घिरी हम-कलाम हो न सकी

रवा जहाँ को कि मजनूँ को संगसार करे
क़बा-ए-ज़ीस्त जुनूँ की नियाम हो न सकी

ख़िरद की बात भी सुनते कहाँ मिली फ़ुर्सत
जुनूँ की बात लहद तक तमाम हो न सकी