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जुनूँ के जोश में जिस ने मोहब्बत को हुनर जाना | शाही शायरी
junun ke josh mein jis ne mohabbat ko hunar jaana

ग़ज़ल

जुनूँ के जोश में जिस ने मोहब्बत को हुनर जाना

साहिर देहल्वी

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जुनूँ के जोश में जिस ने मोहब्बत को हुनर जाना
सुबुकदोशी समझता है वो इस सौदा में सर जाना

किसी का नाज़ था अंदाज़ था अब सर-ब-सर जाना
उधर चढ़ना निगाहों में इधर दिल में उतर जाना

तसव्वुर ख़ाल-ओ-आरिज़ का तमाशा-ए-दो-आलम है
यहाँ आँखों में रहना है वहाँ दिल में उतर जाना

जुनून-ए-इश्क़ में कब तन-बदन का होश रहता है
बढ़ा जब जोश-ए-सौदा हम ने सर को दर्द-ए-सर जाना

हवस-बाज़ी नहीं ये इश्क़-बाज़ी है ख़ुदा शाहिद
मोहब्बत में है शर्त-ए-अव्वलीं जी से गुज़र जाना

मिटाई अपनी हस्ती हम ने इश्क़-ए-जान-ए-जानाँ में
फ़ना में देख कर रंग-ए-बक़ा को मो'तबर जाना

सरापा-ए-वफ़ा इक ज़िंदा-ए-जावेद ओ बे-ग़म है
तकल्लुफ़-बरतरफ़ ग़म क्या है जीना और मर जाना

हमारी उम्र का पैमाना अब लबरेज़ है 'साहिर'
छलकना फ़र्ज़ हो जाता है पैमाने का भर जाना