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जुनूँ का राज़ मोहब्बत का भेद पा न सकी | शाही शायरी
junun ka raaz mohabbat ka bhed pa na saki

ग़ज़ल

जुनूँ का राज़ मोहब्बत का भेद पा न सकी

रज़ा हमदानी

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जुनूँ का राज़ मोहब्बत का भेद पा न सकी
हमारा साथ ये दुनिया मगर निभा न सकी

बिखर गया हूँ फ़ज़ाओं में बू-ए-गुल की तरह
मिरे वजूद में वुसअत मिरी समा न सकी

हर इक क़दम पे सलीब-आश्ना मिले मुझ को
ये काएनात वफ़ाओं का बार उठा न सकी

पटक के रह गई सर अपना रहगुज़ारों से
मिरी सदा दिल-ए-कोहसार में समा न सकी

खुली हवा की फ़सीलों में ज़िंदगी है असीर
फ़रेब-ए-रंग से माहौल को बसा न सकी

रज़ा तुलू-ए-सहर तक है ज़िंदगी शब की
ये बात अहल-ए-सितम की समझ में आ न सकी