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जुनून-ए-शौक़ में महव-ए-तमाशा हो गए हम तुम | शाही शायरी
junun-e-shauq mein mahw-e-tamasha ho gae hum tum

ग़ज़ल

जुनून-ए-शौक़ में महव-ए-तमाशा हो गए हम तुम

नज़र बर्नी

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जुनून-ए-शौक़ में महव-ए-तमाशा हो गए हम तुम
मोहब्बत रंग लाई ख़ूब रुस्वा हो गए हम तुम

कोई मोनिस न हमदम है न कोई राज़-दाँ अपना
हुजूम-ए-शौक़ के साए में तन्हा हो गए हम तुम

अंधेरों में भटकती है जवानी रौशनी कैसी
ये क्या मंज़िल है महरूम-ए-तमन्ना हो गए हम तुम

परस्तार-ए-वफ़ा कोई नहीं बाज़ार-ए-उल्फ़त में
ख़रीदारी नहीं जिस की वो सौदा हो गए हम तुम

अज़ल से क़िस्मत-ए-आदम मोहब्बत से है वाबस्ता
जहाँ में किस लिए फिर आह रुस्वा हो गए हम तुम

चले थे दो क़दम जब भी कभी अंजाम राहों पर
हसीन-ओ-गुल-फिशाँ राहों पे शैदा हो गए हम तुम

सुरूर-ओ-कैफ़ के आलम में अपनी होश खो बैठे
'नज़र' की चोट खा कर महव-ए-जल्वा हो गए हम तुम