जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है 
मगर वो आज भी बरहम नहीं है 
बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना 
तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है 
बहुत कुछ और भी है इस जहाँ में 
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है 
तक़ाज़े क्यूँ करूँ पैहम न साक़ी 
किसे याँ फ़िक्र-ए-बेश-ओ-कम नहीं है 
उधर मश्कूक है मेरी सदाक़त 
इधर भी बद-गुमानी कम नहीं है 
मिरी बर्बादियों का हम-नशीनो 
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है 
अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं 
अभी तो आँख भी पुर-नम नहीं है 
ब-ईं सैल-ए-ग़म ओ सैल-ए-हवादिस 
मिरा सर है कि अब भी ख़म नहीं है 
'मजाज़' इक बादा-कश तो है यक़ीनन 
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है
        ग़ज़ल
जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है
असरार-उल-हक़ मजाज़

