जुनून-ए-इश्क़ की आमादगी ने कुछ न दिया
यहाँ भी ज़ीस्त की उफ़्तादगी ने कुछ न दिया
लहू की मौज से बाम-ए-ख़याल रौशन है
दमकते चाँद की उस्तादगी ने कुछ न दिया
ये लब तुम्हारे नहीं कर सके मसीहाई
उन्हें भी वक़्फ़ा-ए-वामांदगी ने कुछ न दिया
समेट लाए थे जितने भी ख़्वाब थे लेकिन
हुज़ूर-ए-दोस्त भी दीवानगी ने कुछ न दिया
मैं देखती थी तिरे ख़ाल-ओ-ख़द को हैरत से
मगर ये क्या कि मिरी सादगी ने कुछ न दिया
तुम्हारी जेब भी ख़ाली तुम्हारे दिल की तरह
तुम्हें भी फ़ुर्सत-ए-यक-बारगी ने कुछ न दिया
दिए के नूर में करते रहे सफ़र सारे
वो जिन को निस्बत-ए-सय्यारगी ने कुछ न दिया
भटक रहे हैं किसी अजनबी मसाफ़त में
मह-ओ-नुजूम को आवारगी ने कुछ न दिया
वो लोग कौन हैं जिन को ख़ुदा नसीब हुआ
हमें तो दिल तिरी नज़्ज़ारगी ने कुछ न दिया
ये आँख आज भी दर पर लगी हुई है 'सहर'
तमाम उम्र की बेचारगी ने कुछ न दिया
ग़ज़ल
जुनून-ए-इश्क़ की आमादगी ने कुछ न दिया
शाइस्ता सहर