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जुनून-ए-इश्क़ की आमादगी ने कुछ न दिया | शाही शायरी
junun-e-ishq ki aamadgi ne kuchh na diya

ग़ज़ल

जुनून-ए-इश्क़ की आमादगी ने कुछ न दिया

शाइस्ता सहर

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जुनून-ए-इश्क़ की आमादगी ने कुछ न दिया
यहाँ भी ज़ीस्त की उफ़्तादगी ने कुछ न दिया

लहू की मौज से बाम-ए-ख़याल रौशन है
दमकते चाँद की उस्तादगी ने कुछ न दिया

ये लब तुम्हारे नहीं कर सके मसीहाई
उन्हें भी वक़्फ़ा-ए-वामांदगी ने कुछ न दिया

समेट लाए थे जितने भी ख़्वाब थे लेकिन
हुज़ूर-ए-दोस्त भी दीवानगी ने कुछ न दिया

मैं देखती थी तिरे ख़ाल-ओ-ख़द को हैरत से
मगर ये क्या कि मिरी सादगी ने कुछ न दिया

तुम्हारी जेब भी ख़ाली तुम्हारे दिल की तरह
तुम्हें भी फ़ुर्सत-ए-यक-बारगी ने कुछ न दिया

दिए के नूर में करते रहे सफ़र सारे
वो जिन को निस्बत-ए-सय्यारगी ने कुछ न दिया

भटक रहे हैं किसी अजनबी मसाफ़त में
मह-ओ-नुजूम को आवारगी ने कुछ न दिया

वो लोग कौन हैं जिन को ख़ुदा नसीब हुआ
हमें तो दिल तिरी नज़्ज़ारगी ने कुछ न दिया

ये आँख आज भी दर पर लगी हुई है 'सहर'
तमाम उम्र की बेचारगी ने कुछ न दिया