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जुनून-ए-अव्वलीं शाइस्तगी थी | शाही शायरी
junun-e-awwalin shaistagi thi

ग़ज़ल

जुनून-ए-अव्वलीं शाइस्तगी थी

ज़ेहरा निगाह

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जुनून-ए-अव्वलीं शाइस्तगी थी
वही पहली मोहब्बत आख़िरी थी

जहाँ हम फिर से बसना चाहते थे
वो बस्ती हो के दुनिया हो चुकी थी

कुशादा थे बहुत बाज़ू-ए-वहशत
ये ज़ंजीर-ए-ख़िरद उलझी हुई थी

कभी हर लफ़्ज़ के सौ सौ मआ'नी
कभी पूरी कहानी अन-कही थी

सहर आग़ाज़-ए-शब इतमाम-ए-हुज्जत
अजब 'ज़हरा' की वज़-ए-ज़िंदगी थी