जुनूँ-आवर शब-ए-महताब थी पी की तमन्ना में
कि बह कर रेल में अश्कों के हम थे सैर-ए-दरिया में
हमारी ख़ाक पर आहिस्ता ठोकर मार ऐ ज़ालिम
मबादा शीशा-ए-दिल टूट चुभ जावे तिरे पा में
तुम्हारे आबला-पाओं को जंगल याद करता है
लहू हर ख़ार से टपके है अब लग दस्त-ए-सौदा में
ब-कैफ़िय्यत था अज़-बस रात मज़कूर उस की आँखों का
भरी थी बू-ए-नर्गिस यक-क़लम हर जाम-ए-सहबा में
ग़ुबार-ए-आह-ए-तूफ़ाँ से छुपी है ख़ाक में बस्ती
ये 'उज़लत' शहर में था जा रहा नागाह सहरा में
ग़ज़ल
जुनूँ-आवर शब-ए-महताब थी पी की तमन्ना में
वली उज़लत