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जुदा थी बाम से दीवार दर अकेला था | शाही शायरी
juda thi baam se diwar dar akela tha

ग़ज़ल

जुदा थी बाम से दीवार दर अकेला था

जावेद शाहीन

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जुदा थी बाम से दीवार दर अकेला था
मकीं थे ख़ुद में मगन और घर अकेला था

थी आरज़ू कि रहूँ जब्र से महाज़-आरा
मैं डर गया कि ये लम्बा सफ़र अकेला था

निगाह-ए-ग़ैर जिसे मो'तबर बहुत ठहरी
उसे मैं कैसे दिखाता नगर अकेला था

कहाँ तलक मैं शुजाअत की दाद देता यहाँ
कि उस की सारी सिपह मैं इधर अकेला था

बहुत मज़े में रहे सर-निगूँ ख़जिल पौदे
हवा-ए-तेज़ की ज़द में शजर अकेला था

अबस शरीक था बे-वक़्त रज़्म में 'शाहीं'
दयार-ए-ग़ैर में वो बे-ख़बर अकेला था