जुदा है दर्द का मफ़्हूम लफ़्ज़-ए-ख़्वाब के साथ
शुऊर-ए-ज़ात निखरता है इंक़लाब के साथ
नज़र उठा के तो देखो उफ़ुक़ के चेहरे पर
मिरी ग़ज़ल का तक़द्दुस है आफ़्ताब के साथ
अज़ल से दश्त-ओ-बयाबाँ में घूमती है हयात
कभी नक़ाब से हट कर कभी नक़ाब के साथ
शफ़क़ है या तिरी आँखों की मौज-ए-बे-ख़्वाबी
जो घुल रही है हर इक क़तरा-ए-शराब के साथ
गुज़ार दी हैं कई इंतिज़ार की शामें
कुछ इज़्तिराब की ख़ातिर कुछ इज़्तिराब के साथ
मिरे वजूद की तन्हाइयों के ज़ीने से
उतर रहा है सँभल कर कोई हिजाब के साथ
रिवायतों के दवावीन देखने वालो
नए मिज़ाज का चेहरा पढ़ो किताब के साथ

ग़ज़ल
जुदा है दर्द का मफ़्हूम लफ़्ज़-ए-ख़्वाब के साथ
मीर नक़ी अली ख़ान साक़िब