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जोश-ए-गिर्या ये दम-ए-रुख़्सत-ए-यार आए नज़र | शाही शायरी
josh-e-girya ye dam-e-ruKHsat-e-yar aae nazar

ग़ज़ल

जोश-ए-गिर्या ये दम-ए-रुख़्सत-ए-यार आए नज़र

जुरअत क़लंदर बख़्श

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जोश-ए-गिर्या ये दम-ए-रुख़्सत-ए-यार आए नज़र
अब्र-ए-जोशाँ का बँधा जैसे कि तार आए नज़र

रंग-ए-गुलज़ार जहाँ गरचे हज़ार आए नज़र
चैन पर दिल को कहाँ ताकि न यार आए नज़र

अपना जब कू-ए-तसव्वुर में गुज़ार आए नज़र
जिस तरफ़ देखें उधर सूरत-ए-यार आए नज़र

हूँ मैं किस ग़ैरत-ए-गुलज़ार का ज़ख़्मी कि मिरे
हर बुन-ए-मू पे गुल-ए-ज़ख़्म हज़ार आए नज़र

बिन पढ़े फाड़ के ख़त रख दे जो वो रौज़न में
जूँ क़लम सीना मिरा क्यूँ न फ़िगार आए नज़र

हम-सुख़न जिस से न हो सकिए फिर उस शोख़ से आह!
और कुछ बात का कब दार-ओ-मदार आए नज़र

हो जहाँ जुम्बिश-ए-लब का भी न यारा ऐ वाए
मुँह कहाँ ये कि जो वाँ बोस-ओ-कनार आए नज़र

हम दिल-अफ़रोख़्ता वाँ जूँ शरर-ए-संग हैं आह
न जहाँ पैक-ए-सबा का भी गुज़ार आए नज़र

सर-बुलंदी जिन्हें दे चर्ख़ न दे चैन उन्हें
कि ब-गर्दिश मह-ओ-ख़ुर लैल-ओ-नहार आए नज़र

जब कि हर रोज़ कटीं वादे पे घड़ियाँ गिनते
क्यूँ न हर दिन हमें फिर रोज़-ए-शुमार आए नज़र

उस के महरम पे भबूका सी जो देखूँ चिड़िया
क्यूँ न जूँ ताइर-ए-सीमाब क़रार आए नज़र

हो ब-सद-रंग शगुफ़्ता लब-ए-दरिया पे वो बाग़
हर रविश जिस में कि बस लुत्फ़-ए-हज़ार आए नज़र

चार सू नग़्मा-सराई में हों मुर्ग़ान-ए-चमन
शाख़-दर-शाख़ अजाइब गुल-ओ-बार आए नज़र

मौज-ए-दरिया इधर अटखेली की चालें दिखलाए
और उधर रक़्स-कुनाँ बाद-ए-बहार आए नज़र

होवे अतराफ़ से घनघोर घटा घिर आई
कौंद बिजली की हो और पड़ती फुवार आए नज़र

इक तरफ़ मोर मुंडेरों पे करें क्या क्या शोर
इक तरफ़ अब्र में बगलों की क़तार आए नज़र

गर्दिश-ए-जाम हो जूँ गर्दिश-ए-चश्मान-ए-बुताँ
हाथ में मुतरिब-ए-सर-ख़ुश के सितार आए नज़र

लब-ब-लब सीना-ब-सीना जिसे चाहें वो हो
गुलशन-ए-ज़ीस्त की तब हम को बहार आए नज़र

आशिक़ाना ग़ज़ल अब पढ़ कोई 'जुरअत' तह-दार
मअनी-ए-ताज़ा भी ता यारों को यार आए नज़र