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जों सब्ज़ा रहे उगते ही पैरों के तले हम | शाही शायरी
jon sabza rahe ugte hi pairon ke tale hum

ग़ज़ल

जों सब्ज़ा रहे उगते ही पैरों के तले हम

शाद लखनवी

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जों सब्ज़ा रहे उगते ही पैरों के तले हम
बरसात के मौसम में भी फूले न फले हम

महरूम-ए-चमन मुर्ग़-ए-क़फ़स बंद-ए-अज़ल हैं
सय्याद के पिंजरे में हैं बचपन से पले हम

जब ग़ैर से होता है वो सफ़्फ़ाक बग़ल-गीर
तेग़-ए-सफ़हानी को लगाते हैं गले हम

चक्की की तरह चर्ख़ ने पीसा तो हमीं को
दाना हैं ज़माने के गए उस से वली हम

ये शौक़-ए-शहादत है जो तेग़ उस ने अलम की
गर्दन को झुकाए हुए सय्याद चले हम

वो मस्त हैं जब दर पे अड़े पीर-ए-मुग़ाँ के
बे-मय के पिए फिर नहीं टाले से टले हम

अबरू की हवा भी न लगी बुल-हवसों को
उस तेग़ की रोज़ आँच में बे-आब जले हम

कुछ ग़म नहीं बुत समझें बद-ओ-नेक जो चाहें
अल्लाह के बंदे हैं बुरे हैं कि भले हम