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जोबन उन का उठान पर कुछ है | शाही शायरी
joban un ka uThan par kuchh hai

ग़ज़ल

जोबन उन का उठान पर कुछ है

रियाज़ ख़ैराबादी

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जोबन उन का उठान पर कुछ है
अब मिज़ाज आसमान पर कुछ है

क्या ठिकाना है बात का उन की
दिल में कुछ है ज़बान पर कुछ है

वा'दा है ग़ैर से ये हीला है
काम मुझ को मकान पर कुछ है

हूर का ज़िक्र क्यूँ किया दम-ए-मर्ग
शुबह मेरे बयान पर कुछ है

गुम-शुदा दिल न हो कहीं मेरा
उन की महरम की पान पर कुछ है

हो के रुस्वा किसे किया रुस्वा
ज़िक्र सब की ज़बान पर कुछ है

क्यूँ न हो शौक़ जल्वा-ए-लब-ओ-बाम
अब जवानी उठान पर कुछ है

कहो मेहमान-ए-ग़म से अब रुख़्सत
क़र्ज़ क्या मेज़बान पर कुछ है

बंग ही दे जो मय नहीं वाइज़
तेरी ऊँची दुकान पर कुछ है

मैं ने घूरा तो हम-दमों से कहा
देखो उस नौजवान पर कुछ है

रख दिया हाथ उन से ये कह कर
ठहरो ऐ जान रान पर कुछ है

कोई छुप कर गया है ग़ैर के घर
शक क़दम के निशान पर कुछ है

बाले पहने उलट के कानों में
और घबराए कान पर कुछ है

हूँ यहाँ इस लिए दकन को 'रियाज़'
रश्क हिन्दोस्तान पर कुछ है