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जो ज़ख़्मों से अपने बहलते रहेंगे | शाही शायरी
jo zaKHmon se apne bahalte rahenge

ग़ज़ल

जो ज़ख़्मों से अपने बहलते रहेंगे

मुहिब आरफ़ी

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जो ज़ख़्मों से अपने बहलते रहेंगे
वही फूल हैं शहद उगलते रहेंगे

घटाएँ उठीं साँप वीरानियों के
इन्ही आस्तीनों में पलते रहेंगे

शरीअ'त ख़स-ओ-ख़ार ही की चलेगी
अलम रंग-ओ-बू के निकलते रहेंगे

नई बस्तियाँ रोज़ बस्ती रहेंगी
जिन्हें मेरे सहरा निगलते रहेंगे

मचलते रहें रौशनी के पतंगे
दिए मेरे काजल उगलते रहेंगे

रवाँ हर तरफ़ ज़ौक़-ए-पस्ती रहेगा
बुलंदी के चश्मे उबलते रहेंगे

जिसे साँस लेना हो ख़ुद आड़ कर ले
ये झोंके हुआ के तो चलते रहेंगे

ये पत्ते तो अब फूल क्या हो सकेंगे
मगर उम्र भर हाथ मलते रहेंगे

'मुहिब' रास्ती है इबारत कजी से
मिरे बल कहाँ तक निकलते रहेंगे