जो तुम ने पूछा तो हर्फ़-ए-उल्फ़त बर आया साहिब हमारे लब से
सो इस को सुन कर हुए ख़फ़ा तुम न कहते थे हम इसी सबब से
न देते हम तो कभी दिल अपना न होते हरगिज़ ख़राब-ओ-रुसवा
वले करें क्या कि तुम ने हम को दिखाईं झुमकीं अजब ही छब से
वो ज'अद-ए-मुश्कीं जो दिन को देखे तो याद उस की में शाम ही से
ये पेच-ओ-ताब आ के दिल से उलझे कि फिर सहर तक न सुलझे शब से
लगाई फ़ुंदुक़ जो हम ने उस की कलाई पकड़ी तो हँस के बोला
ये उँगली पहुँचे की याँ न ठहरी बस आप रहिए ज़रा अदब से
कहा था हम कुछ कहेंगे तुम से कहा तो ऐसा कि हम न समझे
समझते क्यूँ-कर कि उस ने लब से सुख़न निकाला कुछ ऐसे ढब से
हवस तो बोसे की है निहायत प कीजिए क्या कि बस नहीं है
जो दस्तरस हो तो मिस्ल-ए-साग़र लगावें लब को हम उन के लब से
किसी ने पूछा 'नज़ीर' को भी तुम्हारी महफ़िल में बार होगा
कहा कि होगा वो बोला कब से कहा कभू का कभी, न अब से
ग़ज़ल
जो तुम ने पूछा तो हर्फ़-ए-उल्फ़त बर आया साहिब हमारे लब से
नज़ीर अकबराबादी