जो तुझे और मुझे एक कर सका नहीं
वो तिरा ख़ुदा नहीं वो मिरा ख़ुदा नहीं
ज़िंदगी मिली कभी तो गिला करेंगे पर
ज़िंदगी मिली नहीं तो गिला किया नहीं
मैं जो इस दयार में अब तलक नहीं मरा
क्या मिरा कोई अज़ीज़ अब यहाँ बचा नहीं
जिस के एहतिराम में सर कटा दिया गया
उस को तो ख़बर नहीं उस को तो पता नहीं
ख़ुद से दूर हो गए चूर चूर हो गए
रस्सी जल गई मगर उस का बल गया नहीं
ज़ख़्म की नज़ाकतों को नहीं समझ सका
तू 'वक़ार'-ख़ान है जौन-एलिया नहीं
ग़ज़ल
जो तुझे और मुझे एक कर सका नहीं
वक़ार ख़ान