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जो तिरी महफ़िल से ज़ौक़-ए-ख़ाम ले कर आए हैं | शाही शायरी
jo teri mahfil se zauq-e-KHam le kar aae hain

ग़ज़ल

जो तिरी महफ़िल से ज़ौक़-ए-ख़ाम ले कर आए हैं

सय्यदा शान-ए-मेराज

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जो तिरी महफ़िल से ज़ौक़-ए-ख़ाम ले कर आए हैं
अपने सर वो ख़ुद ही इक इल्ज़ाम ले कर आए हैं

ज़िंदगी के नर्म काँधों पर लिए फिरते हैं हम
ग़म का जो बार-ए-गिराँ इनआम ले कर आए हैं

वक़्त के नादाँ परिंदे ज़ोम-ए-दानाई के गिर्द
ख़ूब-सूरत ख़्वाहिशों के दाम ले कर आए हैं

एक मंज़र पर नज़र ठहरे तो ठहरे किस तरह
हम मिज़ाज-ए-गर्दिश-ए-अय्याम ले कर आए हैं

बे-ख़ुदी अच्छी थी अब तो आगही की शक्ल में
ग़म ही ग़म ना-वाक़िफ़-ए-अंजाम ले कर आए हैं

पत्थरों के रास्ते से अपने शीशे के क़दम
सई-ए-ला-हासिल का इक पैग़ाम ले कर आए हैं

बे-अमल लोगों से जब पूछो तो कहते हैं की 'शान'
हम अज़ल से क़िस्मत-ए-नाकाम ले कर आए हैं