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जो तेरे हुस्न में नर्मी भी बाँकपन भी है | शाही शायरी
jo tere husn mein narmi bhi bankpan bhi hai

ग़ज़ल

जो तेरे हुस्न में नर्मी भी बाँकपन भी है

सुलैमान अरीब

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जो तेरे हुस्न में नर्मी भी बाँकपन भी है
वो कैफ़-ए-ताज़ा भी है नश्शा-ए-कुहन भी है

मुझे तो चैन से रहने दे ऐ दिल-ए-वहशी
कि दश्त भी है तिरे सामने चमन भी है

कहाँ की मंज़िल-ए-मक़्सूद रास्ता भी नहीं
सफ़र में साथ ख़ुदा भी है अहरमन भी है

वो एक लम्हा-ए-पर्रां वो एक साअ'त-ए-दीद
हिना ब-दस्त भी है लाला-पैरहन भी है

ब-चश्म-ए-शबनम-ए-गिर्यां अगर कोई देखे
तिरा लिबास ही ऐ गुल तिरा कफ़न भी है

वो एक गोशा-ए-जन्नत जिसे दकन कहिए
निगार शाइ'र-ए-बदनाम का वतन भी है