जो सुन कर लगी ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने
ये क्या कह दिया था कली से सबा ने
मिरे शेर अनमोल लाल-ओ-गुहर हैं
लुटाए तिरे ग़म ने क्या क्या ख़ज़ाने
शफ़क़ खिल उठी चम्पई आरिज़ों पर
निखारा तिरे रंग-ए-रुख़ को हया ने
रहा है वही दिल का एहसास-ए-उल्फ़त
बदलते रहे लाख करवट ज़माने
मोहब्बत का उन को यक़ीं आ चला है
हक़ीक़त बने जा रहे हैं फ़साने
झिझक कर किसी ने चुराईं जो नज़रें
चराग़-ए-तमन्ना लगा झिलमिलाने
कभी ये भी सोचा है ऐ हँसने वालो
अगर पड़ गए तुम को आँसू बहाने
वो तूफ़ान बाद-ए-मुख़ालिफ़ कहाँ है
जो उट्ठा था ऐ 'नक़्श' मुझ को मिटाने
ग़ज़ल
जो सुन कर लगी ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने
महेश चंद्र नक़्श