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जो सुन कर लगी ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने | शाही शायरी
jo sun kar lagi zer-e-lab muskurane

ग़ज़ल

जो सुन कर लगी ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने

महेश चंद्र नक़्श

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जो सुन कर लगी ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने
ये क्या कह दिया था कली से सबा ने

मिरे शेर अनमोल लाल-ओ-गुहर हैं
लुटाए तिरे ग़म ने क्या क्या ख़ज़ाने

शफ़क़ खिल उठी चम्पई आरिज़ों पर
निखारा तिरे रंग-ए-रुख़ को हया ने

रहा है वही दिल का एहसास-ए-उल्फ़त
बदलते रहे लाख करवट ज़माने

मोहब्बत का उन को यक़ीं आ चला है
हक़ीक़त बने जा रहे हैं फ़साने

झिझक कर किसी ने चुराईं जो नज़रें
चराग़-ए-तमन्ना लगा झिलमिलाने

कभी ये भी सोचा है ऐ हँसने वालो
अगर पड़ गए तुम को आँसू बहाने

वो तूफ़ान बाद-ए-मुख़ालिफ़ कहाँ है
जो उट्ठा था ऐ 'नक़्श' मुझ को मिटाने