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जो शुआ-ए-लब है मौज-ए-नौ-बहार-ए-नग़्मा है | शाही शायरी
jo shua-e-lab hai mauj-e-nau-bahaar-e-naghma hai

ग़ज़ल

जो शुआ-ए-लब है मौज-ए-नौ-बहार-ए-नग़्मा है

गोपाल मित्तल

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जो शुआ-ए-लब है मौज-ए-नौ-बहार-ए-नग़्मा है
ख़ामुशी भी आप की आईना-दार-ए-नग़्मा है

गोश इक मुद्दत से महरूम-ए-समाअत है मगर
दिल अजब नादाँ है अब तक ए'तिबार-ए-नग़्मा है

फ़र्क़ ये है नुत्क़ के साँचे में ढल सकता नहीं
वर्ना जो आँसू है दुर्र-ए-शाह-वार-ए-नग़्मा है

मुनकिर-ए-साज़-ए-मसर्रत हूँ तो काफ़िर हूँ मगर
हम-नफ़स मिज़राब-ए-ग़म पर इंहिसार-ए-नग़्मा है

ऐ कि शिकवा था तुझे संगीं-मिज़ाजी का मिरी
देख इस पत्थर में भी मौज-ए-शरार-ए-नग़्मा है