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जो सलीब-ए-शब पे गूँजे वो सदा कहिए मुझे | शाही शायरी
jo salib-e-shab pe gunje wo sada kahiye mujhe

ग़ज़ल

जो सलीब-ए-शब पे गूँजे वो सदा कहिए मुझे

नाज़ क़ादरी

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जो सलीब-ए-शब पे गूँजे वो सदा कहिए मुझे
ये सितम कैसा कि साज़-ए-बे-नवा कहिए मुझे

बे-कराँ वुसअत में हूँ मैं टूटते तारों की चीख़
हाँ किसी दरमाँदा रह-रव की दुआ कहिए मुझे

मेरा हर शीराज़ा बरहम हो गया लम्हों के साथ
मुंतशिर औराक़ का इक सिलसिला कहिए मुझे

सुब्ह से अब तक रहा मैं साथ उस के लेकिन अब
शाम के जंगल में गुम होता हुआ कहिए मुझे

'नाज़' मैं भी आतिशीं जज़्बात रखता था कभी
अब ख़ुनुक रातों की बर्फ़ीली हवा कहिए मुझे