जो सारे हम-सफ़र इक बार हिर्ज़-ए-जाँ कर लें
तो जिस ज़मीं पे क़दम रक्खें आसमाँ कर लें
इशारा करती हैं मौजें कि आएगा तूफ़ाँ
चलो हम अपने इरादों को बादबाँ कर लें
परों को जोड़ के उड़ने का शौक़ है जिन को
उन्हें बताओ कि महफ़ूज़ आशियाँ कर लें
जो क़त्ल तू ने किया था बना के मंसूबा
तिरे सितम को बढ़ाएँ तो दास्ताँ कर लें
दहकते शो'लों पे चलने का शौक़ है जिन को
रुतों की आग में वो हौसले जवाँ कर लें
ये उन से कह दो अगर इम्तिहान की ज़िद है
समुंदरों की तरह दिल को बे-कराँ कर लें
हर एक बूँद का लेंगे हिसाब हम 'अल्वी'
हमारे ख़ून से दिल को वो शादमाँ कर लें
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ग़ज़ल
जो सारे हम-सफ़र इक बार हिर्ज़-ए-जाँ कर लें
अब्बास अलवी