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जो रिवायत का मुंकिर हो आए | शाही शायरी
jo riwayat ka munkir ho aae

ग़ज़ल

जो रिवायत का मुंकिर हो आए

नदीम सिद्दीक़ी

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जो रिवायत का मुंकिर हो आए
नक़्श-हा-ए-बुज़ुर्गाँ मिटाए

उन के दिल में जगह मिल गई है
मेरी क़ीमत ज़माना लगाए

मैं समुंदर पे हँसता रहूँगा
या मिरी तिश्नगी ये बुझाए

ग़म की हुर्मत इसी में छुपी है
एक आँसू भी गिरने न पाए

ज़िंदगी मेरे क़दमों तले है
मौत मुझ पे अब आँसू बहाए