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जो रिश्तों की अजब सी ज़िम्मेदारी सर पे रक्खी है | शाही शायरी
jo rishton ki ajab si zimmedari sar pe rakkhi hai

ग़ज़ल

जो रिश्तों की अजब सी ज़िम्मेदारी सर पे रक्खी है

ज़िया ज़मीर

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जो रिश्तों की अजब सी ज़िम्मेदारी सर पे रक्खी है
तो अब दस्तार जैसी चीज़ भी ठोकर पे रक्खी है

तिरी यादों की पाएल सी खनकती है मिरे घर में
मिरे कमरे के अंदर गूँजती है दर पे रक्खी है

तुम्हारे जिस्म ने पहलू-ब-पहलू जिस को लिखा था
वो सिलवट ज्यूँ की त्यूँ अब भी मिरे बिस्तर पे रक्खी है

तुम्हारे लम्स की ख़ुशबू अभी तक साथ है मेरे
मिरे तकिए के नीचे है मिरे बिस्तर पे रक्खी है

कहाँ की बे-क़रारी बेकली और कैसी बेचैनी
हथेली आप की जब इस दिल-ए-मुज़्तर पे रक्खी है

अब इस आशुफ़्तगी में क्या बताएँ सिलसिला अपना
कभी जो ख़ानदानी थी शराफ़त घर पे रक्खी है

कभी हम उस को दिल का बोझ समझे हैं न समझेंगे
जो गठरी ज़िम्मेदारी की हमारे सर पे रक्खी है