जो रंज नविश्ते में है क्यूँकर न मिलेगा
लिखवाएँगे नामा तो कबूतर न मिलेगा
जिस रात नक़ाब उस मह-ए-कामिल ने उलट दी
तारों को निशान-ए-मह-ए-अनवर न मिलेगा
अब्र-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त है बंधे आँसुओं का तार
इस तरह का वक़्त ऐ मिज़ा-ए-तर न मिलेगा
काहीदगी-ए-जिस्म अगर यूँ ही रहेगी
हम को भी हमारा तन-ए-लाग़र न मिलेगा
इंसाफ़ को समझो ख़िज़र-ए-राह-ए-हिदायत
ऐ 'रश्क' अब ऐसा कोई रहबर न मिलेगा
ग़ज़ल
जो रंज नविश्ते में है क्यूँकर न मिलेगा
मीर अली औसत रशक