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जो रहीन-ए-तग़य्युरात नहीं | शाही शायरी
jo rahin-e-taghayyuraat nahin

ग़ज़ल

जो रहीन-ए-तग़य्युरात नहीं

साग़र निज़ामी

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जो रहीन-ए-तग़य्युरात नहीं
मौत है मौत वो हयात नहीं

कुछ बहारों ही पे नहीं मौक़ूफ़
मेरी वहशत को भी सबात नहीं

मसअले हुस्न के भी नाज़ुक हैं
इश्क़ ही के मुआ'मलात नहीं

आज से दिल ये बज़्म है उन की
ये हरीम-ए-तसव्वुरात नहीं

शाख़-ए-गुल हो कि गर्दन-ए-मीना
मेरे हाथों में उन का हात नहीं

का'बा-ओ-दैर को सबात है कब
मय-कदे को अगर सबात नहीं

हुस्न से काएनात है 'साग़र'
इश्क़ बुनियाद-ए-काएनात नहीं