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जो राह चलना है ख़ुद ही चुन लो यहाँ कोई राहबर नहीं है | शाही शायरी
jo rah chalna hai KHud hi chun lo yahan koi rahbar nahin hai

ग़ज़ल

जो राह चलना है ख़ुद ही चुन लो यहाँ कोई राहबर नहीं है

अर्जुमंद बानो अफ़्शाँ

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जो राह चलना है ख़ुद ही चुन लो यहाँ कोई राहबर नहीं है
यही हक़ीक़त है बात मानो तुम्हें अभी कुछ ख़बर नहीं है

किसी को सादा-दिली का बदला मिला ही कब है जो अब मिलेगा
वफ़ा भी दुनिया में एक शय है मगर वो अब मो'तबर नहीं है

न जाने कब रुख़ हवा बदल दे भड़क उठें फिर वो बुझते शो'ले
हिरास है वो फ़ज़ा पे तारी कहीं भी महफ़ूज़ घर नहीं है

जो चाहते हैं चमन को बाटें वो कैसे बाटेंगे फ़्स्ल-ए-गुलशन
बहेगा ग़ुंचों का ख़ून कितना उन्हें तो इस का भी डर नहीं है

जो पुश्त पे वार कर रहे हैं कहो कि अब सामने से आएँ
जिसे वो ग़ाफ़िल समझ रहे हैं वो इस क़दर बे-ख़बर नहीं है

न कामयाबी मिलेगी तुम को हमें मिटाने की कोशिशों में
झुकेगा जो ज़ालिमों के आगे वो हक़-परस्तों का सर नहीं है

जो बाँटते हैं मता-ए-हस्ती उन्हें ये 'अफ़्शाँ' ज़रा बता दो
जो मैं ने माँगा है हक़ है मेरा मुझे ये कहने में डर नहीं है