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जो क़तरे में समुंदर देखते हैं | शाही शायरी
jo qatre mein samundar dekhte hain

ग़ज़ल

जो क़तरे में समुंदर देखते हैं

अख़तर शाहजहाँपुरी

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जो क़तरे में समुंदर देखते हैं
तुझे मंज़र-ब-मंज़र देखते हैं

क़बा-ए-दर्द जब से ज़ेब-ए-तन है
ख़ुशी को अपने अंदर देखते हैं

चलो अम्न-ओ-अमाँ है मय-कदे में
वहीं कुछ पल ठहर कर देखते हैं

कभी तन्हाई ने तन्हा न छोड़ा
तमाशा फिर भी घुस कर देखते हैं

करम-फ़रमाई है सूरज की ये भी
उसे अपने बराबर देखते हैं

हम अपने पाँव फैलाएँगे 'अख़्तर'
कहाँ तक है ये चादर देखते हैं