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जो नहीं मुमकिन कभी मुमकिन वो होना चाहिए | शाही शायरी
jo nahin mumkin kabhi mumkin wo hona chahiye

ग़ज़ल

जो नहीं मुमकिन कभी मुमकिन वो होना चाहिए

उरूज ज़ेहरा ज़ैदी

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जो नहीं मुमकिन कभी मुमकिन वो होना चाहिए
वो नहीं मेरा मुझे तो उस का होना चाहिए

और तो कुछ भी नहीं लेकिन सुकून-ए-क़ल्ब को
माँ के पहलू की तरह का इक बिछौना चाहिए

मेरा यूसुफ़ ग़ैब में है और मैं रोती नहीं
हिज्र का मुझ से तक़ाज़ा है कि रोना चाहिए

इस मोहब्बत का असल इस के सिवा कुछ भी नहीं
उम्र ऐसी है कि तुम को इक खिलौना चाहिए

दिन सुनहरा है तो अपने आप से मिल लो ज़रूर
शाम-ता-शब तो फ़क़त तकिया भिगोना चाहिए

आज फ़ुर्सत है तो 'ज़ेहरा' फ़ैसला अब ख़ुद करो
चैन खोया नींद खोई अब क्या खोना चाहिए