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जो न हों कुछ तशरीह-तलब कम होते हैं | शाही शायरी
jo na hon kuchh tashrih-talab kam hote hain

ग़ज़ल

जो न हों कुछ तशरीह-तलब कम होते हैं

अंजुम इरफ़ानी

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जो न हों कुछ तशरीह-तलब कम होते हैं
उस के इशारे सारे मुबहम होते हैं

हर चेहरा हर रंग में आने लगता है
पेश-ए-नज़र यादों के अल्बम होते हैं

ऐसे में आ जाती है अपनी ही याद
आईना होता है और हम होते हैं

भूलने लगते हैं जुगनू भी अपनी राह
पलकों पर जब क़तरा-ए-शबनम होते हैं

मौज-ए-बला जब सर से गुज़रने लगती है
मज़लूमों के हाथ ही परचम होते हैं

मुट्ठी से फिसले ही जाते हैं हर फल
वस्ल के लम्हे तार-ए-रेशम होते हैं

क्या जाने जो दीवार-ओ-दर का है असीर
राहों में क्या क्या पेच-ओ-ख़म होते हैं

कोई पुराना ख़त कुछ भूली-बिसरी याद
ज़ख़्मों पर वो लम्हे मरहम होते हैं

'अंजुम' जलने लगते हैं हर सम्त दिए
दर्द के हमले दिल पर पैहम होते हैं