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जो मेरी आख़िरी ख़्वाहिश की तर्जुमाँ ठहरी | शाही शायरी
jo meri aaKHiri KHwahish ki tarjuman Thahri

ग़ज़ल

जो मेरी आख़िरी ख़्वाहिश की तर्जुमाँ ठहरी

नासिर ज़ैदी

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जो मेरी आख़िरी ख़्वाहिश की तर्जुमाँ ठहरी
वो एक ग़ारत-ए-जाँ ही मता-ए-जाँ ठहरी

ये ग़म नहीं कि मिरा आशियाँ रहा न रहा
ख़ुशी ये है कि यहीं बर्क़ बे-अमाँ ठहरी

वो तेरी चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ थी कि मौज-ए-करम
वहीं वहीं पे मैं डूबा जहाँ जहाँ ठहरी

कभी थे उस में मिरी ज़िंदगी के हंगामे
वो इक गली जो गुज़रगाह-ए-दुश्मनाँ ठहरी

वही थी ज़ीस्त का हासिल वही थी लुत्फ़-ए-हयात
वो एक साअत-ए-रंगीं जो बे-कराँ ठहरी

मैं उस को भूल भी जाऊँ तो किस तरह 'नासिर'
जो शर्त-ए-ख़ास मिरे उन के दरमियाँ ठहरी