जो मज़े आज तिरे ग़म के अज़ाबों में मिले
ऐसी लज़्ज़त कहाँ साक़ी की शराबों में मिले
सारी दुनिया से नहीं उन को है पर्दा लेकिन
वो मिले जब भी मिले मुझ को नक़ाबों में मिले
तेरी ख़ुशबू से मोअत्तर है ज़माना सारा
कैसे मुमकिन है वो ख़ुशबू भी गुलाबों में मिले
ज़िंदगानी में नसीहत नहीं काम आती है
दर्स-ए-अख़्लाक़ फ़क़त मुझ को किताबों में मिले
मैं ने फूलों से भी नाज़ुक से सवालात किए
मुझ को पत्थर से ही अल्फ़ाज़ जवाबों में मिले
प्यार के बाब में अब नाम कहाँ है तेरा
कोई तहरीर-ए-वफ़ा कैसे निसाबों में मिले
क्या पता कल जो बड़ी शान में गुम था 'आज़म'
अब वही शख़्स तुझे ख़ाना-ख़राबों में मिले
ग़ज़ल
जो मज़े आज तिरे ग़म के अज़ाबों में मिले
इमाम अाज़म