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जो मरीज़ इश्क़ के हैं उन को शिफ़ा है कि नहीं | शाही शायरी
jo mariz ishq ke hain un ko shifa hai ki nahin

ग़ज़ल

जो मरीज़ इश्क़ के हैं उन को शिफ़ा है कि नहीं

वलीउल्लाह मुहिब

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जो मरीज़ इश्क़ के हैं उन को शिफ़ा है कि नहीं
ऐ तबीब उन की भी दुनिया में दवा है कि नहीं

ख़ूब-रू जितने हैं आलम में जफ़ाकार हैं सब
याद क्या जानें उन्हें तौर-ए-वफ़ा है कि नहीं

तंग इतना है ज़माना कि चमन में गुल तक
सुब्ह-दम चाक-गरेबाँ ही सबा है कि नहीं

मिरी बे-ताबी के अहवाल को शब के उस से
नामा-बर तू ने ज़बानी भी कहा है कि नहीं

ज़ुल्म है ये तो कि दिल लीजिए और रहिए ख़फ़ा
कहीं इंसाफ़ ज़माने में रहा है कि नहीं

शैख़ कहते हैं मुझे दैर न जा काबा चल
बरहमन कहते हैं क्यूँ याँ भी ख़ुदा है कि नहीं

अपने यारों में कोई जा के अदम से न फिरा
क्यूँ 'मुहिब' उन की ख़बर लानी बजा है कि नहीं