जो मय-कदे से भी दामन बचा बचा के चले
तिरी गली से जो गुज़रे तो लड़खड़ा के चले
हमें भी क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन से निस्बत है
फ़क़ीह-ए-शहर से कह दो नज़र मिला के चले
कोई तो जाने कि गुज़री है दिल पे क्या जब भी
ख़िज़ाँ के बाग़ में झोंके ख़ुनुक हवा के चले
अब ए'तिराफ़-ए-जफ़ा और किस तरह होगा
कि तेरी बज़्म में क़िस्से मिरी वफ़ा के चले
हज़ार होंट मिले हों तो क्या फ़साना-ए-दिल
सुनाने वाले निगाहों से भी सुना के चले
कहीं सुराग़-ए-चमन मिल ही जाएगा 'राहत'
चलो उधर को जिधर क़ाफ़िले सबा के चले
ग़ज़ल
जो मय-कदे से भी दामन बचा बचा के चले
अमीन राहत चुग़ताई