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जो मय-कदे में बहकते हैं लड़खड़ाते हैं | शाही शायरी
jo mai-kade mein bahakte hain laDkhaDate hain

ग़ज़ल

जो मय-कदे में बहकते हैं लड़खड़ाते हैं

हयात वारसी

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जो मय-कदे में बहकते हैं लड़खड़ाते हैं
मिरा ख़याल है वो तिश्नगी छुपाते हैं

ज़रा सा वक़्त के सूरज ने रुख़ जो बदला है
मिरे वजूद पे कुछ साए मुस्कुराते हैं

दिलों की सम्त पे लफ़्ज़ों के संग मत फेंको
ज़रा सी ठेस से आईने टूट जाते हैं

तिलिस्म-ए-ज़ात की फैली है तीरगी इतनी
कि वुसअ'तों के उजाले सिमटते जाते हैं

सितम-ज़रीफ़ी-ए-हालात का करिश्मा है
भटकने वाले मुझे रास्ते बताते हैं

जिन्हें 'हयात' शुऊर-ए-हयात हासिल है
फ़रेब देते नहीं हैं फ़रेब खाते हैं