जो माल उस ने समेटा था वो भी सारा गया
वो ख़्वाहिशों के तसादुम में आज मारा गया
ख़ुमार-ए-इश्क़ की ग़ारत-गरी है दोनों तरफ़
हमारी उम्र गई और सुकूँ तुम्हारा गया
बिफरती मौज के आगे ये किस को याद रहा
कहाँ पे नाव गई और कहाँ किनारा गया
बस एक जान बची है चलो निसार करें
सुना है नाम हमारा ही फिर पुकारा गया
ज़मीं पे उस की ख़बर है कोई न है पर्वा
फ़लक से टूट गया तो कहाँ सितारा गया
सबा के हाथ शब-ए-हिज्र के गुज़रते ही
तुम्हारी सम्त में अश्कों का गोशवारा गया
वो पेड़ टूट गया तो मुझे कुछ ऐसा लगा
कि जैसे अपनी मोहब्बत का इस्तिआरा गया
हर एक नक़्श तिरी याद से मुनव्वर था
मैं अपने माज़ी में कल रात जब दोबारा गया
ग़ज़ल
जो माल उस ने समेटा था वो भी सारा गया
सय्यद अनवार अहमद