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जो लब पे न लाऊँ वही शे'रों में कहूँ मैं | शाही शायरी
jo lab pe na laun wahi sheron mein kahun main

ग़ज़ल

जो लब पे न लाऊँ वही शे'रों में कहूँ मैं

सादिक़ नसीम

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जो लब पे न लाऊँ वही शे'रों में कहूँ मैं
यूँ आईना-ए-हसरत-ए-गुफ़्तार बनूँ मैं

आईना-ए-आग़ाज़ में देखूँ रुख़-ए-अंजाम
कलियों के चटकने की सदा से भी डरूँ मैं

मेरे लिए ख़ल्वत भी है हंगामे की सूरत
वो शोर-ए-तमन्ना है कि किस किस को सुनूँ मैं

ठहरो तो ये घर क्या दिल-ओ-जाँ भी हैं तुम्हारे
जाते हो तो क्यूँ राह की दीवार बनूँ मैं

हर गाम निगाहों से लिपट उठते हैं शो'ले
और दिल की यही ज़िद है इसी राह चलूँ मैं

हर एक नज़र आबला-पा देख रहा हूँ
बस्ते हुए शहरों को भी सहरा ही कहूँ मैं

कोई भी सर-ए-दार चराग़ाँ नहीं करता
और सब की तमन्ना है कि मंसूर बनूँ में

नक़्क़ाशी-ए-तख़ईल से घबरा सा गया हूँ
कब तक यूँही ख़्वाबों के जज़ीरों में रहूँ मैं

जो ले गया जान ओ जिगर ओ दिल सर-ए-राहे
वो घर मिरे आ जाए तो क्या नज़्र करूँ मैं

मुझ को है जुनूँ ज़मज़मा-ए-बर्ग-ए-ख़िज़ाँ का
पतझड़ के लिए गोश-बर-आवाज़ रहूँ मैं

'सादिक़' मुझे मंज़ूर नहीं इन की नुमाइश
हर चंद कि ज़ख़्मों का ख़रीदार तो हूँ मैं