जो कुछ नज़र पड़ा मिरा देखा हुआ लगा
ये जिस्म का लिबास भी पहना हुआ लगा
जो शे'र भी कहा वो पुराना लगा मुझे
जिस लफ़्ज़ को छुआ वही बरता हुआ लगा
दिल का नगर तो देर से वीरान था मगर
सूरज का शहर भी मुझे उजड़ा हुआ लगा
अपना भी जी उदास था मौसम को देख कर
इस शोख़ का मिज़ाज भी बदला हुआ लगा
'पाशी' से खुल के बात हमारी भी कल हुई
वो नौजवान तो हमें सुलझा हुआ लगा
ग़ज़ल
जो कुछ नज़र पड़ा मिरा देखा हुआ लगा
कुमार पाशी

