जो कुछ कि तुम सीं मुझे बोलना था बोल चुका
बयान-ए-इश्क़ के तूमार कूँ मैं खोल चुका
अज़ल सीं मुझ कूँ दिया दर्द साने-ए-तक़दीर
मिरे नसीब के शर्बत में ज़हर घोल चुका
जिन्नों के शहर में नहीं कम-अयार कूँ हुरमत
मैं नक़्द-ए-क़ल्ब कूँ काँटे में दिल के तोल चुका
मुझे ख़रीद किए तुम ने कम निगाही सीं
कमीना बंदा-ए-बे-ज़र का आज मोल चुका
नहीं रहा सुख़न-ए-आब-दार का मोती
'सिराज' तब्अ के सब जौहरों कूँ रोल चुका
ग़ज़ल
जो कुछ कि तुम सीं मुझे बोलना था बोल चुका
सिराज औरंगाबादी