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जो कुछ कि था वज़ाइफ़-ओ-औराद रह गया | शाही शायरी
jo kuchh ki tha wazaif-o-aurad rah gaya

ग़ज़ल

जो कुछ कि था वज़ाइफ़-ओ-औराद रह गया

मीर मोहम्मदी बेदार

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जो कुछ कि था वज़ाइफ़-ओ-औराद रह गया
तेरा ही एक नाम फ़क़त याद रह गया

ज़ालिम तिरी निगह ने किए घर के घर ख़राब
होगा कोई मकाँ कि वो आबाद रह गया

जाते हैं हम-सफ़ीर चमन को पर एक मैं
याँ कुश्ता-ए-तग़ाफ़ुल-ए-सय्याद रह गया

जूँ ही दो-चार आ के हुआ वो नज़र-फ़रेब
ले कर क़लम को हाथ में बहज़ाद रह गया

इस सर्व-ए-गुल-अज़ार की तर्ज़-ए-ख़िराम देख
ख़जलत से गड़ ज़मीन में शमशाद रह गया

किस किस का दिल न शाद किया तू ने ऐ फ़लक
इक मैं ही ग़म-ज़दा हूँ कि नाशाद रह गया

'बेदार' राह-ए-इश्क़ किसी से न तय हुई
सहरा में क़ैस कोह में फ़रहाद रह गया