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जो कुछ कि है दुनिया में वो इंसाँ के लिए है | शाही शायरी
jo kuchh ki hai duniya mein wo insan ke liye hai

ग़ज़ल

जो कुछ कि है दुनिया में वो इंसाँ के लिए है

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

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जो कुछ कि है दुनिया में वो इंसाँ के लिए है
आरास्ता ये घर इसी मेहमाँ के लिए है

ज़ुल्फ़ें तिरी काफ़िर उन्हें दिल से मिरे क्या काम
दिल काबा है और काबा मुसलमाँ के लिए है

हो क़ैद-ए-तफ़क्कुर से कब आज़ाद सुख़न-वर
मंज़ूर क़फ़स मुर्ग़-ए-ख़ुश-अलहाँ के लिए है

अपनों से न मिल अपने हैं सब अपनों के दुश्मन
हर नय में भरी आग नीस्ताँ के लिए है

कुछ बख़्त से मेरे जो सिवा है वो सियाही
बाक़ी है तो मेरी शब-ए-हिज्राँ के लिए है

दीवाना हूँ मैं भी वो तमाशा कि मिरा ज़िक्र
गोया सबक़ अतफ़ाल-ए-दबिस्ताँ के लिए है

है बादा-कशों के लिए इक ग़ैब से ताईद
ज़ाहिद जो दुआ माँगता बाराँ के लिए है

चंगुल में है मूज़ी के दिल उस चश्म के हाथों
घेरा ये ग़ज़ब पंजा-ए-मिज़्गाँ के लिए है

मैं किस की निगाहों का हूँ वहशी कि मिरी ख़ाक
इक कोहल-ए-बसर चश्म-ए-ग़ज़ालाँ के लिए है

दिल भी है बला क़ाबिल-ए-मश्क़-ए-सितम-ओ-नाज़
जो तीर है उस तूदा-ए-तूफ़ाँ के लिए है

निकले कोई क्या क़ैद-ए-अलाइक़ से कि ऐ 'ज़ौक़'
दर ही नहीं इस ख़ाना-ए-ज़िंदाँ के लिए है