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जो कुछ भी मेरे पास थी दौलत निगल गई | शाही शायरी
jo kuchh bhi mere pas thi daulat nigal gai

ग़ज़ल

जो कुछ भी मेरे पास थी दौलत निगल गई

शहज़ाद हुसैन साइल

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जो कुछ भी मेरे पास थी दौलत निगल गई
मेरी अना को तेरी मोहब्बत निगल गई

तस्वीर कह रही थी मुसव्विर की दास्ताँ
मंज़र-कशी को आँख की हैरत निगल गई

हिस्से में मेरे आई हमेशा शब-ए-फ़िराक़
हर लम्हा-ए-नशात को ज़ुल्मत निगल गई

मैं ने जलाई आग अदू के लिए मगर
मेरा वजूद आग की हिद्दत निगल गई

मैं बद नहीं हूँ बस यूँही बदनाम हो गया
किरदार मेरा जेहल की तोहमत निगल गई

कल आइने में ख़ुद को मैं बे-शक्ल क्यूँ लगा
क्या गर्दिश-ए-जहाँ मिरी सूरत निगल गई

ईमान अपने हाथों में महफ़ूज़ था कहाँ
जो बच गया था उस को भी बिदअ'त निगल गई

ग़ुर्बत ने मेरे शहर का नक़्शा बदल दिया
ग़ैरत को ज़िंदा रहने की चाहत निगल गई

अब फ़न्न-ए-शाइरी में तग़ज़्ज़ुल कहाँ बचा
या'नी ग़ज़ल के हुस्न को जिद्दत निगल गई