जो कुछ भी गुज़रता है मिरे दिल पे गुज़र जाए
उतरा हुआ चेहरा मिरी धरती का निखर जाए
इक शहर-ए-सदा सीने में आबाद है लेकिन
इक आलम-ए-ख़ामोश है जिस सम्त नज़र जाए
हम भी हैं किसी कहफ़ के असहाब की मानिंद
ऐसा न हो जब आँख खुले वक़्त गुज़र जाए
जब साँप ही डसवाने की आदत है तो यारो
जो ज़हर ज़बाँ पर है वो दिल में भी उतर जाए
कश्ती है मगर हम में कोई नूह नहीं है
आया हुआ तूफ़ान ख़ुदा जाने किधर जाए
मैं साया किए अब्र के मानिंद चलूँगा
ऐ दोस्त जहाँ तक भी तिरी राहगुज़र जाए
मैं कुछ न कहूँ और ये चाहूँ कि मिरी बात
ख़ुशबू की तरह उड़ के तिरे दिल में उतर जाए
ग़ज़ल
जो कुछ भी गुज़रता है मिरे दिल पे गुज़र जाए
हिमायत अली शाएर