जो कल हैरान थे उन को परेशाँ कर के छोड़ूँगा
मैं अब आईना-ए-हस्ती को हैराँ कर के छोड़ूँगा
दिखा दूँगा तमाशा दी अगर फ़ुर्सत ज़माने ने
तमाशाए-ए-फ़रावाँ को फ़रावाँ कर के छोड़ूँगा
किया था इश्क़ ने ताराज जिस सेहन-ए-गुलिस्ताँ को
मैं अब उस पर मोहब्बत को निगहबाँ कर के छोड़ूँगा
अयाँ है जो हर इक ज़र्रे में हर ख़ुर्शीद में 'अजमल'
मैं उस पर्दा-नशीं को अब नुमायाँ कर के छोड़ूँगा
ग़ज़ल
जो कल हैरान थे उन को परेशाँ कर के छोड़ूँगा
अजमल सिराज