EN اردو
जो जो शुऊर-ए-ज़ेहन पे आता चला गया | शाही शायरी
jo jo shuur-e-zehn pe aata chala gaya

ग़ज़ल

जो जो शुऊर-ए-ज़ेहन पे आता चला गया

अहसन लखनवी

;

जो जो शुऊर-ए-ज़ेहन पे आता चला गया
दिल कुल्फ़तों के दाग़ मिटाता चला गया

ला कर बहार-ए-नौ के गुल-ए-नुदरत-ए-ख़याल
सहरा को मैं चमन सा बनाता चला गया

अल्लाह का ये फ़ज़्ल है मुझ पे कि बहर-ए-इल्म
कूज़े से मेरे दिल में समाता चला गया

अल्फ़ाज़ के गुहर से ग़ज़ल की ज़मीं को मैं
जैसे फ़लक-नज़ाद बनता चला गया

तार-ए-नफ़स पे छेड़ के इक नग़्मा-ए-हयात
मैं आगही के साज़ पे गाता चला गया

उल्फ़त की राह कर के ज़माने पे आश्कार
'अहसन' मैं ख़ार-ए-राह हटाता चला गया