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जो झुटलाता रहा है ज़िंदगी को | शाही शायरी
jo jhuTlata raha hai zindagi ko

ग़ज़ल

जो झुटलाता रहा है ज़िंदगी को

मीर नक़ी अली ख़ान साक़िब

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जो झुटलाता रहा है ज़िंदगी को
ज़रा पहचान लें उस आदमी को

उजाले बाँटती फिरती है दुनिया
स्याही से उलझती रौशनी को

अज़ल से गूँजता मंज़र है हस्ती
सदा दो जिस्म की बे-चेहरगी को

न देखा तुम ने सड़कों से गुज़रते
बिखरती साँस लेती ज़िंदगी को

नहीं मोहलत कि मैं ख़ुर्शीद देता
तिरी आँखों की बुझती रौशनी को

जो है इस शहर में मुंकिर सुख़न का
सुनाओ ये ग़ज़ल 'साक़िब' उसी को